जाने कब आँख लगी, यादों के दीये जलते रहे,
रोशनी घुलती रही, ख्वाबों में तेरी महक आई है !
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तुम चलो तो ये ज़मीं साथ दे ये आसमान साथ दे
हम चले तो साया भी साथ ना दे
इतना टूटा हूँ के छूने से बिखर जाऊँगा,
अब अगर और दुआ दोगे तो मर जाऊँगा
मैं मानता हूँ खुद की गलतियां भी कम नहीं रही होंगी मगर बेकसूर उन्हें भी कहना मुनासिब नहीं
हम सा काहिल न मिलेगा कहीं
खुद ख्वाहिशें हमसे तंग सजन
सारी उम्र जिस घर को सजाने में गुजार दी ,
उस घर में मेरे नाम की तख्ती तलक नहीं !
हम गुम थे एक खयाल में इस कदर
खुद को ढूंढने का वक्त ही नहीं मिला
बेकल बेकल रहते हो पर महफ़िल के आदाब के साथ
आँख चुरा कर देख भी लेते भोले भी बन जाते हो
ज़िन्दगी में अपनापन तो हर कोई दिखाता है,
पर अपना है कौन ये वक़्त बतलाता है।
दोपहर तक बिक गया बाजार का हर एक झूठ ,
और मैं एक सच लेकर शाम तक बैठा